दशहरे पर नहीं होता रावण दहन, इस गांव में होती है ‘महापूजा’!

अकोला : जहां पूरे देश में दशहरे (विजयादशमी) को सत्य की जीत का उत्सव माना जाता है, वहीं महाराष्ट्र के अकोला जिले के पातुर तालुका में स्थित सांगोडा गांव एक अनोखी परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। इस गांव को ‘रावण का गांव’ के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यहां हर साल दशहरे के दिन रावण का पुतला दहन करने के बजाय उसकी महापूजा की जाती है। गांव के लोग सदियों से इस परंपरा को श्रद्धापूर्वक निभा रहे हैं।

300 साल पुरानी अनोखी परंपरा
रावण की भव्य मूर्ति:गांव के प्रवेश द्वार के पास ही काले पत्थर से बनी दस मुखों वाले रावण की एक प्रभावशाली मूर्ति स्थापित है। यह मूर्ति लगभग 300 से 350 साल पुरानी है। रावण की यह प्रतिमा युद्ध के वेशभूषा में है और तलवार तथा अन्य हथियारों के साथ मुकुटधारी मस्तक से सजी हुई है।
रावण था शिव भक्त: ग्रामीणों का मानना है कि रावण भगवान शिव का महान उपासक था। यही कारण है कि पूर्वजों ने उनकी पूजा शुरू की और यह परंपरा आज भी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है।
दशहरे पर महापूजा: दशहरे के दिन, गांव के सभी लोग एकजुट होकर रावण की मूर्ति पर हार चढ़ाते हैं, आरती करते हैं और विधि-विधान से महापूजा करते हैं। इस अवसर पर यहां दूर-दूर से श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।

मूर्ति स्थापना की दिलचस्प कहानी
रावण की यह अनोखी मूर्ति गांव में कैसे आई, इसकी भी एक खास कहानी है:
गलती से बनी मूर्ति:कहा जाता है कि मूल रूप से यह मूर्ति गांव के ग्राम देवता के लिए बनवाई जा रही थी, लेकिन मूर्तिकार से गलती से दस सिरों वाले रावण की मूर्ति बन गई। जब इस मूर्ति को बैलगाड़ी में रखकर गांव के अंदर लाया जा रहा था, तो बैलगाड़ी अचानक रुक गई और लाख कोशिशों के बाद भी वह आगे नहीं बढ़ पाई। ग्रामीणों ने इसे रावण का चमत्कार माना और मूर्ति को गांव की सीमा (वेशी)पर ही स्थापित कर दिया। आज भी गांव के पुजारी रोजाना इस मूर्ति की पूजा करते हैं, और दशहरे के दिन पूरा गांव एकजुट होकर महापूजा करता है। ग्रामीणों का कहना है कि यह परंपरा लगभग साढ़े तीन सौ वर्षों से चली आ रही है। रावण दहन न करने और उसकी पूजा करने के पीछे उनका विश्वास है कि रावण में कुछ सद्गुण (जैसे महापंडित होना और शिवभक्ति) थे, जिन्हें हमें स्वीकार करना चाहिए। गांव के लोगों ने अब रावण की इस मूर्ति के लिए एक सभा मंडप बनाने की इच्छा भी जाहिर की है। उनका विश्वास है कि वे इस सदियों पुरानी परंपरा को इसी तरह आगे भी कायम रखेंगे।

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